मनीषा शर्मा। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (JLF) में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी ने अपनी आत्मकथा ‘दियासलाई’ का विमोचन किया। इस अवसर पर उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों और अनछुए पहलुओं को साझा किया, जिनमें उनके सरनेम परिवर्तन की अनसुनी कहानी, नोबेल पुरस्कार को राष्ट्र को समर्पित करने का निर्णय और एक दिलचस्प निजी किस्सा भी शामिल था।
कैसे ‘कैलाश शर्मा’ बने ‘कैलाश सत्यार्थी’?
अपने शुरुआती जीवन के बारे में बात करते हुए कैलाश सत्यार्थी ने बताया कि वे मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। उनकी परवरिश पारंपरिक धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार हुई, लेकिन उनका मन शुरू से ही समाज में फैली असमानताओं और भेदभाव को देखकर विचलित रहता था।
उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों को गहराई से अपनाया और 15 साल की उम्र में एक ऐसा साहसिक कदम उठाया जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। उन्होंने 2 अक्टूबर, गांधी जयंती के अवसर पर समाज में अछूत माने जाने वाली जातियों की महिलाओं से भोजन बनवाया और इसे गांधीवादी विचारधारा के समर्थकों को परोसा।
यह घटना उनके परिवार और समाज के लिए एक बड़ा झटका थी। उन्हें कठोर विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा। समाज के ठेकेदारों ने उन्हें शुद्धिकरण के लिए 101 ब्राह्मणों के पैर धोने और प्रयागराज के संगम में स्नान करने का आदेश दिया।
लेकिन इस घटना ने उनके भीतर क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। उन्होंने यह तय कर लिया कि वे सत्य और समानता के मार्ग पर चलेंगे और समाज की पुरानी जंजीरों को तोड़ने का प्रयास करेंगे। इसी सोच के साथ उन्होंने अपना उपनाम ‘शर्मा’ छोड़कर ‘सत्यार्थी’ रख लिया, जिसका अर्थ है “सत्य की खोज करने वाला”।
सत्यार्थी ने बताया कि यह सिर्फ नाम बदलने का निर्णय नहीं था, बल्कि यह एक विचारधारा और सामाजिक परिवर्तन का संकेत था। उन्होंने कहा, “मेरा संघर्ष सिर्फ जाति व्यवस्था के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह इंसानियत और समानता के पक्ष में था।”
नोबेल पुरस्कार को राष्ट्रपति को समर्पित करने का फैसला
कैलाश सत्यार्थी को साल 2014 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यह उनके जीवन का सबसे प्रतिष्ठित क्षण था, लेकिन इस पुरस्कार को लेकर भी उन्होंने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया।
उन्होंने बताया कि जब वे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिले, तो उन्हें यह एहसास हुआ कि रवींद्रनाथ टैगोर के बाद कोई भी मूल भारतीय नोबेल पुरस्कार नहीं जीत पाया था। जिन भारतीयों को यह सम्मान मिला था, वे विदेशों में रह रहे थे।
उन्होंने कहा कि अगर वे इस पुरस्कार को अपने पास रखते, तो यह केवल एक व्यक्तिगत उपलब्धि होती, लेकिन इसे राष्ट्र को समर्पित करने से यह राष्ट्रीय धरोहर बन जाता। इस विचार से प्रेरित होकर उन्होंने अपने नोबेल पुरस्कार को राष्ट्रपति को सौंपने का निर्णय लिया।
उन्होंने कहा, “मैंने यह पुरस्कार इसलिए समर्पित किया ताकि यह सभी भारतीयों को प्रेरित करे और बाल श्रम उन्मूलन की लड़ाई में मददगार साबित हो।”
नोबेल जीतने के बाद बाथरूम में लिया सेल्फी का मजेदार किस्सा
अपने भाषण में सत्यार्थी ने एक मजेदार किस्सा भी साझा किया, जो नोबेल पुरस्कार जीतने के बाद उनके जीवन का एक अनोखा अनुभव था।
उन्होंने बताया कि जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की खबर मिली, तो वे बेहद खुश और उत्साहित थे। इस खुशी में उन्होंने बाथरूम में जाकर खुद की तस्वीर ली।
यह सुनकर पूरी सभा ठहाकों से गूंज उठी। सत्यार्थी ने हंसते हुए कहा, “मैं सोच रहा था कि यह सपना तो नहीं है, इसलिए मैंने खुद की फोटो ली ताकि बाद में यकीन कर सकूं!”
बाल श्रम के खिलाफ लड़ाई और आगे की राह
कैलाश सत्यार्थी ने अपने पूरे जीवन को बाल अधिकारों की रक्षा और बाल श्रम के खिलाफ संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया है। उनकी संस्था ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ ने हजारों बच्चों को बाल श्रम और बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया है।
उन्होंने कहा कि भारत में अभी भी लाखों बच्चे बाल मजदूरी और शोषण का शिकार हैं। इसके खिलाफ लड़ाई जारी रहनी चाहिए और समाज को इसमें सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।