मनीषा शर्मा। राजस्थान का जैसलमेर सिर्फ रेगिस्तान और ऐतिहासिक किलों के लिए ही मशहूर नहीं है, बल्कि यह गिद्ध और बाज जैसे शिकारी पक्षियों का भी अहम ठिकाना है। अब इन दुर्लभ और रहस्यमयी पक्षियों पर रिसर्च की शुरुआत हुई है। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (WII) के पांच युवा वैज्ञानिकों ने जैसलमेर के डेजर्ट नेशनल पार्क में एक बड़े संरक्षण प्रोजेक्ट की नींव रखी है। इसे रैप्टर पारिस्थितिकी प्रोजेक्ट कहा जा रहा है। इस रिसर्च का मुख्य मकसद गिद्ध और बाज जैसे रैप्टर को संरक्षित करना और उनकी घटती संख्या को बढ़ाना है। इसके लिए इन पक्षियों पर जीपीएस ट्रांसमीटर और कैमरे लगाए जा रहे हैं, ताकि उनकी पूरी जीवनशैली, शिकार करने का तरीका, घोंसला बनाने का पैटर्न और खतरों की पहचान की जा सके।
बिग बर्ड गिद्ध और बाज को बचाने का प्रयास
वैज्ञानिकों का मानना है कि गिद्ध और रैप्टर प्रजातियां प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये मृत जीवों को खाकर पर्यावरण को साफ रखने का काम करते हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में इनकी संख्या तेजी से घटी है। जहरीले केमिकल, शिकार और आवास खत्म होना इसकी बड़ी वजहें हैं। वैज्ञानिक वरुण खेर, जो इस प्रोजेक्ट से जुड़े हैं, ने बताया कि वन विभाग के सहयोग से जैसलमेर में पहली बार ऐसे प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई है। अब तक तीन शिकारी पक्षियों पर जीपीएस ट्रांसमीटर लगाए जा चुके हैं। इनमें एक इजिप्शियन वल्चर और दो टॉनी ईगल शामिल हैं।
वैज्ञानिकों की निगरानी और जानकारी
इन ट्रांसमीटरों की मदद से वैज्ञानिक यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ये पक्षी किस रास्ते से प्रवास करते हैं, कहां घोंसला बनाते हैं, भोजन के लिए किन स्रोतों पर निर्भर करते हैं और दिन का अधिकांश समय किन जगहों पर बिताते हैं। सिर्फ यही नहीं, बल्कि इनकी मृत्यु के बड़े कारणों पर भी नजर रखी जा रही है। जहरीले पदार्थ, शिकार, बिजली के तारों से टकराना और प्राकृतिक आपदाएं इनके जीवन के लिए खतरा मानी जाती हैं। इस रिसर्च से इनके बचाव के ठोस कदम उठाने में मदद मिलेगी।
छह प्रजातियां चुनी गईं
इस रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत छह प्रमुख प्रजातियों को चुना गया है। इनमें रेड हेडेड वल्चर, व्हाइट वल्चर, इजिप्शियन वल्चर, इंडियन वल्चर, टॉनी ईगल और लैगर फाल्कन शामिल हैं। एक प्रजाति के छह पक्षियों पर टैगिंग करने की अनुमति मिली है। यानी कुल 36 पक्षियों पर जीपीएस ट्रांसमीटर लगाए जाएंगे। रिसर्च टीम इन पक्षियों के घोंसलों की भी निगरानी कर रही है। इससे यह पता लगाया जा सकेगा कि कौन से क्षेत्र इनके लिए सुरक्षित हैं और कहां इन्हें सबसे ज्यादा खतरे का सामना करना पड़ता है।
गिद्ध और बाज से जुड़ी मिथक तोड़ी जा रही हैं
गिद्ध और बाज को लेकर कई तरह की कहानियां लोककथाओं में प्रचलित हैं। वैज्ञानिक वरुण खेर का कहना है कि रिसर्च के दौरान इन मिथकों को भी तोड़ा जा रहा है। एक कहानी यह है कि गिद्ध अपने बच्चों को चट्टान से फेंक देते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। दरअसल, घोंसले ऊंचाई पर होने के कारण उनके बच्चे उड़ना सीखने के लिए छलांग लगाते हैं। यह उनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है, न कि किसी तरह की क्रूरता। इसी तरह, बाज को लेकर यह भी कहा जाता है कि वह बुढ़ापे में अपनी चोंच तोड़ लेता है और फिर नई चोंच आने तक कहीं छिपा रहता है। लेकिन यह पूरी तरह झूठ है। यदि किसी पक्षी की चोंच टूट जाए तो वह जीवित नहीं रह पाता।
भारत में संरक्षण का महत्व
भारत में गिद्ध और रैप्टर प्रजातियों की संख्या लगातार कम हो रही है। एक समय था जब ये हर जगह दिखाई देते थे, लेकिन अब यह दृश्य दुर्लभ हो गया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इन पक्षियों का बचना सिर्फ पर्यावरण के लिए ही नहीं, बल्कि इंसानों के लिए भी जरूरी है। क्योंकि ये प्रकृति की सफाई करने वाले जीव हैं। जैसलमेर का डेजर्ट नेशनल पार्क इन पक्षियों के लिए बेहद खास माना जाता है। यहां की जलवायु और विस्तृत भूभाग इन्हें सुरक्षित आश्रय प्रदान करता है। यही वजह है कि रिसर्च टीम ने इस जगह को चुना है।
भविष्य की दिशा
इस रिसर्च से मिले आंकड़े सरकार और वन विभाग को संरक्षण योजनाएं बनाने में मदद करेंगे। खासकर बिजली की तारों को सुरक्षित करना, जहरीले पदार्थों पर नियंत्रण करना और इन पक्षियों के आवास क्षेत्रों की रक्षा करना आसान होगा। अगर यह प्रोजेक्ट सफल होता है तो भारत में गिद्ध और रैप्टर की घटती आबादी को फिर से बढ़ाया जा सकेगा। यह न केवल जैसलमेर बल्कि पूरे देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी।


