शोभना शर्मा। राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और मार्गदर्शी फैसले में स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत सज़ा केवल तभी दी जा सकती है, जब आरोपी द्वारा किया गया IPC अपराध 10 साल या उससे अधिक की सजा वाला हो और अपराध जातिगत विद्वेष के कारण किया गया हो। कोर्ट ने कहा कि महज पीड़ित के SC/ST वर्ग से होने या विवाद में उसकी संपत्ति शामिल होने मात्र से यह धारा लागू नहीं होती।
30 साल पुराने प्रतापगढ़ केस में दिया गया फैसला
जस्टिस फरजद अली की एकल पीठ ने यह निर्णय प्रतापगढ़ के 30 साल पुराने मामले की सुनवाई के दौरान दिया। कोर्ट ने तीन भाइयों की अपील पर सुनवाई करते हुए उन्हें SC/ST एक्ट के आरोपों से बरी कर दिया। हालांकि, अतिक्रमण (IPC धारा 447) के आरोप में दोष सिद्ध बनाए रखा गया है। यह फैसला रिपोर्टेबल जजमेंट के रूप में दर्ज किया गया है, इसलिए भविष्य के मामलों में भी यह विधिक संदर्भ के रूप में इस्तेमाल होगा।
ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील
सेलारपुरा निवासी कालू खान, रुस्तम खान और वाहिद खान ने वर्ष 1995 में ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सज़ा को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। विशेष अदालत ने उन्हें IPC की धारा 447 (अतिक्रमण) और SC/ST अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत दोषी मानते हुए 6 महीने की सज़ा सुनाई थी। आरोपी पक्ष ने तर्क दिया कि विवाद जातिगत भावना से नहीं, बल्कि रास्ते के अधिकार को लेकर था।
क्या था पूरा विवाद
अभियोजन पक्ष के अनुसार परिवादी राधी ने आरोप लगाया था कि आरोपियों ने उसकी कृषि भूमि पर अतिक्रमण कर मारपीट की। पुलिस जांच के बाद चालान कोर्ट में पेश हुआ और 29 अप्रैल 1995 को आरोपी दोषी ठहराए गए। दूसरी ओर अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने कोर्ट से कहा कि दोनों पक्षों के खेत आसपास हैं, और वर्षों से एक पगडंडी को लेकर विवाद चलता रहा है। यह एक सामान्य कृषि भूमि विवाद था, न कि जातिगत हमले का मामला।
हाईकोर्ट ने कानून की गलत व्याख्या की ओर ध्यान दिलाया
जस्टिस फरजद अली ने कहा कि SC/ST एक्ट की धारा 3(2)(v) लागू करने के लिए दो अनिवार्य तत्व आवश्यक हैं—
अपराध IPC का वह अपराध हो जिसमें 10 वर्ष या उससे अधिक की सज़ा हो।
अपराध इसलिए किया गया हो क्योंकि पीड़ित SC/ST वर्ग से संबंधित है।
कोर्ट ने पाया कि IPC धारा 447 के तहत अधिकतम सज़ा सिर्फ 3 महीने है, जो इस प्रावधान के दायरे में नहीं आती। इसलिए SC/ST एक्ट की धारा 3(2)(v) लागू ही नहीं हो सकती थी। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आरोप तय करते समय न्यायिक विवेक का उपयोग नहीं किया गया और कानून का यांत्रिक उपयोग नहीं होना चाहिए।
जातिगत विद्वेष नहीं, रास्ते का विवाद
हाईकोर्ट ने FIR और गवाहों के बयानों के आधार पर माना कि विवाद पगडंडी को लेकर था, न कि जातिगत पहचान के कारण। कोर्ट ने कहा कि जातिगत पहचान के आधार पर अपराध को साबित करना अभियोजन की जिम्मेदारी है और इस मामले में यह शर्त पूरी नहीं हुई। इसलिए SC/ST एक्ट के तहत सज़ा देना न्यायोचित नहीं माना जा सकता।
सज़ा पर मानवीय दृष्टिकोण
हालांकि अतिक्रमण का आरोप साबित होने पर दोषसिद्धि कायम रही, लेकिन कोर्ट ने सज़ा के बिंदु पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाया। फैसले में लिखा गया कि— घटना 30 वर्ष पुरानी है, आरोपी अब वृद्ध हो चुके हैं और जेल भेजे जाने से पुरानी रंजिशें फिर बढ़ सकती हैं। वर्ष 1991 में वे कुछ समय के लिए जेल में रह चुके हैं, इसलिए वही अवधि पर्याप्त सज़ा मानी जाए। इसके साथ हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि पूर्व में जेल में बिताई अवधि को ही पूर्ण सज़ा माना जाए और उनकी जमानत मुचलके खारिज कर दिए गए।
फैसले का भविष्य में कानूनी महत्व
यह फैसला SC/ST एक्ट के लागू होने के मानकों को स्पष्ट करता है। खासतौर पर ग्रामीण और भूमि विवादों में जहां अक्सर दोनों पक्ष खेत, रास्ता और कब्जा जैसे मुद्दों पर आमने-सामने होते हैं, वहां यह जजमेंट महत्वपूर्ण मिसाल साबित होगा।


