मनीषा शर्मा। राजस्थान हाईकोर्ट ने पूर्व राजपरिवार की ओर से दायर एक हाउस टैक्स से जुड़ी याचिका की सुनवाई के दौरान उनके नामों के आगे लगे ‘महाराज’ और ‘प्रिंसेस’ जैसे शब्दों पर गंभीर आपत्ति जताई है। अदालत ने कहा कि आजादी के बाद और संविधान संशोधन के पश्चात अब इन उपाधियों का कोई संवैधानिक या कानूनी अधिकार नहीं बचा है। इसलिए इस प्रकार के शब्दों का उपयोग नाम के साथ नहीं किया जाना चाहिए।
पूर्व राजपरिवार की याचिका में उठी आपत्ति
मामला पूर्व राजपरिवार से जुड़े दिवंगत जगत सिंह और पृथ्वीराज सिंह के कानूनी वारिसों द्वारा दायर याचिका से संबंधित है। इन वारिसों ने साल 2001 में हाउस टैक्स की वसूली को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। यह मामला पिछले 24 वर्षों से अदालत में लंबित है। हाल ही में जस्टिस महेंद्र कुमार गोयल की एकलपीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए पाया कि याचिका में पूर्व राजपरिवार के सदस्यों के नामों के आगे अभी भी ‘महाराज’ और ‘प्रिंसेस’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस पर न्यायाधीश ने नाराजगी जताते हुए कहा कि अब इन उपाधियों का प्रयोग किस आधार पर किया जा रहा है? अदालत ने स्पष्ट निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता अपने नामों से ऐसे सभी शब्द हटाकर संशोधित याचिका दाखिल करें, अन्यथा याचिका खारिज मान ली जाएगी।
13 अक्टूबर को होगी अगली सुनवाई
मामले में याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एमएम रंजन ने अदालत को बताया कि वे संशोधित शीर्षक तैयार कर प्रस्तुत करेंगे। अदालत ने यह भी कहा कि यदि अगली सुनवाई तक ‘महाराज’ और ‘प्रिंसेस’ शब्द हटाकर संशोधित याचिका दाखिल नहीं की गई, तो इसे अस्वीकार्य माना जाएगा। इस पर कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई की तारीख 13 अक्टूबर 2025 तय की है।
पहले भी कोर्ट ने जताई थी आपत्ति
यह पहला मौका नहीं है जब राजस्थान हाईकोर्ट ने ऐसे उपाधि शब्दों पर आपत्ति जताई हो। जनवरी 2022 में भी इसी तरह के एक मामले में अदालत ने “महाराज”, “राजा”, “नवाब” और “राजकुमार” जैसे शब्दों के उपयोग पर सवाल उठाया था। उस समय अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार दोनों से यह स्पष्ट करने को कहा था कि क्या कोई व्यक्ति अपने नाम से पहले इस प्रकार के राजसी टाइटल का उपयोग कर सकता है या नहीं।
संविधान में उपाधियों पर रोक का कानूनी आधार
अदालत ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि संविधान के 26वें संशोधन (1971) के तहत अनुच्छेद 363A जोड़ा गया था, जिससे पूर्व राजपरिवारों को दिए जाने वाले Privy Purse (राजकोषीय भत्ते) और उनके विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया। इसके अलावा, अनुच्छेद 18 में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में किसी भी नागरिक को किसी प्रकार की उपाधि या टाइटल धारण करने की अनुमति नहीं है।
इस संशोधन के बाद, भारत के सभी नागरिक समान माने जाते हैं और किसी को भी ‘महाराज’, ‘राजा’, ‘नवाब’, या ‘राजकुमार’ जैसी उपाधियाँ प्रयोग करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 14 के अनुसार संविधान सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। ऐसे में इस तरह की उपाधियाँ समानता के सिद्धांत के विरुद्ध हैं।
न्यायालय का रुख और सामाजिक सन्देश
हाईकोर्ट के इस आदेश का न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक महत्व भी है। अदालत ने अपने रुख से यह स्पष्ट किया है कि आज के लोकतांत्रिक भारत में वंशानुगत उपाधियों का कोई स्थान नहीं है। राज्य की अदालतों का यह मानना है कि भारत के नागरिकों को उनके कार्यों और उपलब्धियों के आधार पर सम्मान मिलना चाहिए, न कि किसी वंश परंपरा या वंशानुगत टाइटल के आधार पर।
मामले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
राजस्थान और देशभर में पूर्व राजपरिवारों के कई सदस्य आज भी सामाजिक रूप से अपने पारंपरिक नामों और उपाधियों के साथ पहचाने जाते हैं। लेकिन कानूनी रूप से इनका प्रयोग संविधान संशोधन के बाद अवैध है।
1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 26वां संशोधन पारित कर राजाओं के प्रिविपर्स और विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया था। इस कदम से भारत पूरी तरह एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित हुआ।
अदालत का आदेश संविधान की भावना के अनुरूप
राजस्थान हाईकोर्ट का यह आदेश भारतीय संविधान की लोकतांत्रिक और समानता की भावना को दोहराता है। अदालत ने साफ संदेश दिया है कि भारत में अब कोई भी व्यक्ति अपने नाम के आगे ‘महाराज’, ‘राजकुमार’ या ‘प्रिंसेस’ जैसे शब्द नहीं लगा सकता।
यह निर्णय उन सभी लोगों के लिए एक कानूनी और नैतिक दिशा-निर्देश है जो अभी भी राजसी टाइटल का उपयोग करते हैं। अदालत के इस आदेश के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में पूर्व राजपरिवारों के सदस्य भी संविधान की भावना के अनुरूप अपने नामों से इन उपाधियों को हटाएंगे।


