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जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ‘माई मदर माई लाइफ’ सेशन

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ‘माई मदर माई लाइफ’ सेशन

शोभना शर्मा। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2024 में एक विशेष सत्र “माई मदर माई लाइफ” आयोजित किया गया, जिसमें प्रसिद्ध लेखिका, समाजसेवी और इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति ने अपनी बेटी और ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की पत्नी अक्षता मूर्ति के साथ प्रेरणादायक बातचीत की। इस चर्चा में सुधा मूर्ति ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण अनुभवों को साझा किया और बताया कि कैसे सेवा और परोपकार उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बने।

अक्षता मूर्ति ने अपनी मां से उनके बचपन, परवरिश और मूल्यों के बारे में प्रश्न किए, जिनका सुधा मूर्ति ने बेहद सहजता और स्पष्टता से उत्तर दिया। इस बातचीत में सेवा, परोपकार, आदर्शवाद, पारिवारिक रिश्ते और महिलाओं की भूमिका पर गहन चर्चा हुई।

सेवा की भावना बचपन से मिली

अक्षता मूर्ति ने बातचीत की शुरुआत करते हुए अपनी मां से पूछा कि उन्होंने क्यों बचपन में उनके जन्मदिन की पार्टियों को सीमित कर दिया और उस पैसे को समाज सेवा के लिए लगाने की सलाह दी। इस पर सुधा मूर्ति ने बताया कि यह सीख उन्हें अपने परिवार से मिली थी।

सुधा मूर्ति का उत्तर:
“मेरी दादी कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन वे अपने गांव में डिलीवरी एक्सपर्ट थीं और निःस्वार्थ सेवा किया करती थीं। मेरे पिता नास्तिक थे, लेकिन उनके लिए सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था। मैंने बस उन्हीं से यह सब सीखा। मैंने कभी खुद को किसी विशेष कार्य में संलग्न नहीं समझा, बल्कि यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी रही है।”

उन्होंने अपनी किताब “Three Thousand Stitches” का जिक्र करते हुए बताया कि उन्होंने जब सेक्स वर्कर्स के पुनर्वास का कार्य शुरू किया, तो शुरू में उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन पर टमाटर तक फेंके गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 3000 से अधिक सेक्स वर्कर्स की जिंदगी बदलने में सफलता प्राप्त की।

आदर्शवाद किसी उम्र का मोहताज नहीं

अक्षता मूर्ति ने आदर्शवाद को लेकर समाज में प्रचलित धारणा पर सवाल उठाया कि “अगर आप 20 की उम्र में आदर्शवादी नहीं हैं, तो आपके पास दिल नहीं है। लेकिन अगर आप 40 के बाद भी आदर्शवादी हैं, तो इसका मतलब है कि आपके पास दिमाग नहीं है।”

इस पर सुधा मूर्ति ने दृढ़ता से जवाब दिया,
“मैं आज 74 साल की उम्र में भी आदर्शवादी हूं। मैंने अपने बच्चों को यही सिखाया है कि सबसे पहले इंसान को एक अच्छा व्यक्ति बनना चाहिए। यदि आपका दिल और विचार साफ हैं, तो आप जीवन में किसी भी चुनौती का सामना कर सकते हैं।”

पुस्तकों से मिली प्रेरणा

अक्षता मूर्ति ने अपनी पसंदीदा किताबों “हैमलेट” और “सिक्स ट्यूटर क्वीन” का उल्लेख करते हुए पूछा कि कौन-सी पुस्तकें उनकी मां को प्रेरणा देती हैं।

सुधा मूर्ति का उत्तर:
“किताबें मेरी सबसे अच्छी दोस्त रही हैं। मैंने कई किताबों से जीवन की गहरी सीखें ली हैं। ’10 Thousand Miles Without a Cloud’ और ‘Kingdom of Indus’ जैसी पुस्तकों ने मुझे सोचने और दुनिया को नए दृष्टिकोण से देखने में मदद की है।”

फिलैंथ्रॉपी की शुरुआत का किस्सा

सुधा मूर्ति ने बताया कि 1996 में उनकी बेटी अक्षता ने ही उन्हें परोपकार (फिलैंथ्रॉपी) की अहमियत सिखाई थी। एक दिन अक्षता ने अपने दोस्त आनंद के बारे में बताया, जो आर्थिक संकट से गुजर रहा था। तब अक्षता ने अपनी मां से कहा,
“अगर तुम सोशल वर्क नहीं कर सकतीं, तो तुम्हें किसी को कुछ कहने का हक भी नहीं है।”

इस बात ने सुधा मूर्ति को गहराई से सोचने पर मजबूर कर दिया और उसी दिन उन्होंने फैसला किया कि वे समाज सेवा को अपनी प्राथमिकता बनाएंगी।

वर्किंग वुमन के सवाल पर सुधा मूर्ति की सलाह

सेशन के दौरान एक महिला दर्शक ने सवाल किया कि एक कामकाजी महिला होने के नाते वह कभी-कभी इस बात को लेकर गिल्ट महसूस करती हैं कि वे अपने बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पातीं।

इस पर सुधा मूर्ति ने जवाब दिया,
“बच्चों को आपकी सबसे ज्यादा जरूरत 14 साल की उम्र तक होती है। इसके बाद वे अपने फोन और दुनिया में व्यस्त हो जाते हैं। यदि जरूरत महसूस हो, तो आप कुछ समय का ब्रेक लेकर दोबारा अपने करियर में लौट सकती हैं।”

मां-बेटी के रिश्ते की गहराई

यह सेशन सिर्फ एक प्रेरणादायक बातचीत नहीं था, बल्कि इसमें मां-बेटी के गहरे रिश्ते की झलक भी देखने को मिली। सुधा मूर्ति ने जहां अपने जीवन के अनमोल अनुभव साझा किए, वहीं अक्षता मूर्ति ने भी अपनी मां से मिली सीखों का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह उन्होंने अपने जीवन में इन मूल्यों को आत्मसात किया।

यह बातचीत सेवा, परोपकार, पारिवारिक मूल्यों और आदर्शवाद को एक नई दृष्टि से देखने का अवसर था। सुधा मूर्ति का संदेश कि “अच्छा इंसान बनना सबसे बड़ी उपलब्धि है”, आज भी समाज के लिए एक प्रेरणा है। वहीं, अक्षता मूर्ति की दृढ़ता और सादगी ने यह दिखाया कि सफलता और सेवा साथ-साथ चल सकती हैं।

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