मनीषा शर्मा, अजमेर। अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह, जो विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है, विवादों में घिर गई है। हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने दावा किया है कि इस स्थल पर पहले संकट मोचन महादेव का मंदिर था। उनके द्वारा अजमेर सिविल कोर्ट में दायर याचिका को कोर्ट ने सुनने योग्य मानते हुए 20 दिसंबर को सुनवाई की तारीख तय की है। यह मामला “भगवान श्री संकट मोचन महादेव विराजमान बनाम दरगाह कमेटी” के नाम से दर्ज किया गया है।
याचिका का आधार: 2 साल की रिसर्च और ऐतिहासिक तथ्यों का दावा
याचिकाकर्ता ने तीन मुख्य आधार प्रस्तुत किए हैं:
- दरगाह के दरवाजों की नक्काशी:
गुप्ता का कहना है कि दरगाह के बुलंद दरवाजों की नक्काशी और बनावट हिंदू मंदिरों जैसी है।- ऊपरी संरचना:
दरगाह की गुम्बदों और अन्य संरचनाओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थल किसी मंदिर को तोड़कर बनाया गया है।- पानी और झरने:
उन्होंने यह तर्क दिया कि शिव मंदिरों के पास हमेशा जल स्रोत होते हैं। दरगाह परिसर में भी पानी के झरने मौजूद हैं।ऐतिहासिक संदर्भ और हरबिलास शारदा की किताब
गुप्ता ने कहा कि उन्होंने हरबिलास शारदा की पुस्तक “अजमेर: हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव” से यह दावा किया है। हरबिलास शारदा, जोधपुर हाईकोर्ट में वरिष्ठ जज और अजमेर मेरवाड़ा के न्यायिक विभाग में कार्यरत रहे, ने 1911 में अपनी इस पुस्तक में लिखा था कि इस स्थल पर पहले महादेव मंदिर था। शारदा के अनुसार, यह मंदिर एक ब्राह्मण दंपति द्वारा संचालित किया जाता था। वे प्रतिदिन महादेव का तिलक और जलाभिषेक करते थे। गुप्ता ने यह भी दावा किया कि दरगाह के तहखाने में शिव मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि मुस्लिम आक्रांताओं ने यहां मंदिर को तोड़कर दरगाह का निर्माण किया था। गुप्ता का कहना है कि उन्होंने कई बार अजमेर के स्थानीय लोगों को यह कहते सुना है कि दरगाह स्थल पहले मंदिर था।
दरगाह कमेटी और ख्वाजा साहब के वंशजों का पक्ष
दरगाह के वंशज और प्रमुख उत्तराधिकारी नसरुद्दीन चिश्ती ने इन दावों को झूठा और निराधार बताया है। उन्होंने कहा कि एक आधिकारिक सर्वेक्षण में यह साबित हो चुका है कि दरगाह के नीचे कोई मंदिर नहीं था। उन्होंने कहा कि जयपुर के महाराजा ने दरगाह को चांदी का कटहरा भेंट किया था। उन्होंने इस विवाद को देश की एकता और सहिष्णुता के लिए खतरनाक बताया। दरगाह प्रमुख उत्तराधिकारी नसरुद्दीन चिश्ती ने इसे सस्ती लोकप्रियता पाने का प्रयास बताया। उन्होंने कहा कि हर मस्जिद और दरगाह पर ऐसे दावे करना समाज को बांटने का काम कर रहा है। इतिहासकारों के बीच भी इस मुद्दे पर मतभेद हैं। कई इतिहासकारों का मानना है कि ऐसे दावे करने से देश की सांस्कृतिक और धार्मिक एकता को खतरा हो सकता है।
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 का हवाला
दरगाह कमेटी ने 1991 के प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट का हवाला देते हुए कहा कि:
- इस कानून के अनुसार, 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बदला नहीं जा सकता।
- किसी भी धार्मिक स्थल में बदलाव करना गैरकानूनी है।
अगली सुनवाई: 20 दिसंबर
कोर्ट ने इस मामले में अल्पसंख्यक मंत्रालय, दरगाह कमेटी, और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को नोटिस जारी किया है। सभी पक्षों को 20 दिसंबर को कोर्ट में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखने के लिए कहा गया है।