मनीषा शर्मा। राजस्थान का मरुस्थलीय जिला जैसलमेर एक बार फिर इतिहास और विज्ञान की सुर्खियों में आ गया है। यहां मेघा गांव के पास स्थित तालाब किनारे ग्रामीणों को एक बेहद अनोखी खोज हाथ लगी है। यह कोई साधारण पत्थर नहीं, बल्कि जुरासिक काल के उड़ने वाले डायनासोर का जीवाश्म है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जो हिस्सा सतह पर दिखाई दे रहा है, वह उस विशाल जीव की रीढ़ की हड्डी हो सकती है, जबकि बाकी कंकाल अभी भी जमीन के भीतर लगभग 15 से 20 फीट की गहराई में दबा हुआ है।
यह खोज न केवल राजस्थान बल्कि पूरे भारत के प्रागैतिहासिक महत्व को उजागर करती है। भूजल वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इणखिया का कहना है कि यह जैसलमेर के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा जीवाश्म है, और यदि इसे संरक्षित कर वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए तो यह वैश्विक स्तर पर भी एक बड़ी उपलब्धि साबित हो सकती है।
ग्रामीणों की आंखों के सामने निकला इतिहास
19 अगस्त को मेघा गांव के कुछ ग्रामीण तालाब किनारे काम कर रहे थे। अचानक उनकी नजर मिट्टी और पत्थरों के बीच उभरी एक विचित्र आकृति पर पड़ी। शुरुआत में वे इसे साधारण चट्टान समझ बैठे, लेकिन गौर से देखने पर उन्हें शक हुआ कि यह किसी जीव की हड्डी हो सकती है। अगले ही दिन ग्रामीणों ने फतेहगढ़ प्रशासन और फिर जैसलमेर कलेक्टर प्रताप सिंह को इसकी जानकारी दी। प्रशासन ने तुरंत वैज्ञानिकों को सूचित किया और जांच के लिए टीम मौके पर भेजी गई।
डॉ. इणखिया ने मौके पर पहुंचकर प्राथमिक जांच की और निष्कर्ष निकाला कि यह हड्डियां साधारण जीव-जंतु की नहीं, बल्कि करोड़ों साल पहले धरती पर विचरने वाले किसी उड़ने वाले डायनासोर की हो सकती हैं।
जुरासिक काल का जीवाश्म होने की संभावना
प्राथमिक अध्ययन के आधार पर वैज्ञानिक मानते हैं कि यह जीवाश्म जुरासिक काल का है, यानी लगभग 18 से 20 करोड़ साल पुराना हो सकता है। उस समय धरती का स्वरूप आज से बिल्कुल अलग था। जैसलमेर का इलाका उस समय टेथिस सागर का किनारा था। यही वजह है कि यहां समय-समय पर प्राचीन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के अवशेष मिलते रहे हैं।
डॉ. इणखिया के अनुसार यदि यह हड्डियां किसी सामान्य पशु की होतीं, तो हजारों साल पहले ही अन्य मांसाहारी जीव इन्हें खा चुके होते। लेकिन यह अवशेष जमीन में दबकर सुरक्षित रहे और समय के साथ जीवाश्म का रूप ले लिया। इसका मतलब है कि यह लाखों-करोड़ों वर्ष पुराने हो सकते हैं।
जैसलमेर: डायनासोर की भूमि
जैसलमेर का इलाका पहले भी कई बार प्रागैतिहासिक खोजों के कारण चर्चा में रहा है। दो साल पहले 2023 में डॉ. इणखिया ने जेठवाई पहाड़ी पर मॉर्निंग वॉक के दौरान डायनासोर के अंडे का जीवाश्म खोजा था। इससे पहले थईयात की पहाड़ियों में डायनासोर के पैरों के निशान मिले थे, जिन्हें बाद में कोई चुराकर ले गया।
इतना ही नहीं, आकल गांव में 18 करोड़ साल पुराने पेड़ों के जीवाश्म मिले हैं, जिन्हें अब संरक्षित कर “वुड फॉसिल पार्क” बनाया गया है। जैसलमेर, थईयात और लाठी गांव को तो वैज्ञानिक “डायनासोर का गांव” भी कहते हैं, क्योंकि यहां से समय-समय पर इनके जीवाश्म मिलते रहे हैं।
जेठवाई, थईयात और लाठी: डायनासोर के गांव
डॉ. इणखिया बताते हैं कि जैसलमेर शहर के पास जेठवाई पहाड़ी, थईयात गांव और लाठी क्षेत्र में डायनासोर के प्रमाण सबसे ज्यादा मिले हैं। इन जगहों पर पहले पत्थर और रेत की माइनिंग होती थी, जिसके दौरान कई जीवाश्म नष्ट हो गए। लेकिन जैसे ही जीवाश्म मिलने की घटनाएं बढ़ीं, सरकार ने माइनिंग पर रोक लगा दी और इन क्षेत्रों को संरक्षित कर दिया।
थईयात गांव के पास 2014 में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम ने डायनासोर के पैरों के निशान भी खोजे थे। बाद में यहां से थेरोपोड डायनासोर और टेरोसॉरस प्रजाति की हड्डियां भी मिलीं। यह इस बात का प्रमाण है कि करोड़ों साल पहले जैसलमेर की धरती पर डायनासोर विचरते थे।
वैज्ञानिक अध्ययन और संभावनाएं
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि मेघा गांव में मिले इस विशाल जीवाश्म का संबंध किस प्रजाति से है। इसके लिए जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (GSI) की टीम को बुलाया जाएगा। वैज्ञानिक जांच से यह स्पष्ट होगा कि यह जीवाश्म वास्तव में उड़ने वाले डायनासोर (टेरोसॉरस) का है या किसी अन्य समुद्री या थलचर प्रजाति का।
वैज्ञानिकों का मानना है कि जैसलमेर और गुजरात का कच्छ इलाका जुरासिक युग में समुद्र के किनारे थे। ऐसे में डायनासोर और अन्य समुद्री जीव यहां भोजन की तलाश में आते थे। यही कारण है कि आज भी इस इलाके में जीवाश्म मिलने की घटनाएं होती रहती हैं।
जुरासिक युग का भारत से जुड़ाव
डॉ. इणखिया बताते हैं कि लगभग 25 करोड़ साल पहले अमेरिका, अफ्रीका और भारत जैसे महाद्वीप एक ही विशाल भूखंड का हिस्सा थे। उस समय टेथिस सागर जैसलमेर से सटा हुआ था। इस सागर में व्हेल और शार्क की दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती थीं, जो अब विलुप्त हो चुकी हैं। डायनासोर और अन्य विशालकाय जीव इसी क्षेत्र में भोजन और पानी की तलाश में आते थे, जिसके जीवाश्म आज हमें इतिहास की झलक दिखा रहे हैं।
संरक्षण और शोध की चुनौती
इतिहास और विज्ञान की दृष्टि से इतनी महत्वपूर्ण खोज का संरक्षण बेहद जरूरी है। अक्सर देखा गया है कि ऐसे जीवाश्मों को स्थानीय लोग अज्ञानता में नुकसान पहुंचा देते हैं या कोई इन्हें चुरा ले जाता है। इसलिए विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकार को जल्द से जल्द इस जगह को संरक्षित क्षेत्र घोषित करना चाहिए और वैज्ञानिकों की टीम को विस्तृत रिसर्च के लिए आमंत्रित करना चाहिए।
डॉ. इणखिया का कहना है कि यदि यह जीवाश्म सही तरीके से संरक्षित और शोधित किया जाए तो यह न केवल जैसलमेर बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व का विषय बनेगा। साथ ही, यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ सकता है।