शोभना शर्मा। भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान और मानसून पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल रहे हैं। 1901-2018 के दौरान, भारत का औसत तापमान लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है और 21वीं सदी के अंत तक इसमें 4.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। 1986-2015 के बीच सबसे गर्म दिन के तापमान में 0.63 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है, जो 4.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकती है।
वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन अध्ययन (2024) के अनुसार, मानव-जनित जलवायु परिवर्तन से 21वीं सदी के अंत तक गर्म दिनों और रातों की आवृत्तियों में क्रमशः 55% और 70% की वृद्धि हो सकती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हीट वेव से होने वाली मौतों में 2000-2019 के बीच 62.2% की वृद्धि हुई है।
मानसून पैटर्न में भी बदलाव देखा गया है। जून से सितंबर तक का दक्षिण-पश्चिम मानसून भारत की वार्षिक वर्षा का 80% हिस्सा होता है। 1951-2015 के बीच ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा में 6% की गिरावट आई है, खासकर सिंधु-गंगा के मैदानों और पश्चिमी घाटों पर।
रात के समय तापमान में वृद्धि और गर्म दिनों की संख्या में बढ़ोतरी से स्वास्थ्य और उत्पादकता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहे हैं। क्लाइमेट ट्रेंड्स के अनुसार, 35 डिग्री सेल्सियस के तापमान के संपर्क में छह घंटे से ज्यादा समय तक रहना स्वस्थ व्यक्तियों के लिए भी घातक हो सकता है।
बढ़ते तापमान के कारण उत्पादकता और श्रम घंटों में कमी हो रही है, जिससे जीडीपी में 5% से अधिक की कमी होने की आशंका है। जलवायु परिवर्तन से कृषि, खाद्य सुरक्षा, और समुद्र स्तर में वृद्धि के चलते तटीय क्षेत्रों में भी भारी नुकसान हो सकता है।