मनीषा शर्मा। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण और महिला अधिकारों को सशक्त करने वाला निर्णय दिया है। अदालत ने स्पष्ट किया कि तलाक पर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम, 1986 (Muslim Women Act 1986) के तहत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को निकाह के समय पिता द्वारा दिए गए दहेज, धन और सोने पर पूरा अधिकार है। अदालत ने कहा कि यह संपत्ति महिला की गरिमा और वित्तीय सुरक्षा से जुड़ी है, इसलिए तलाक के बाद भी उसे यह वापस मिलनी चाहिए।
यह फैसला रौशनारा बेगम के मामले में आया, जिनका विवाह 2005 में हुआ और 2011 में तलाक हो गया था। निकाह के दौरान पिता ने दामाद को सात लाख रुपये और तीस ग्राम सोने के गहने दिए थे, जिनका रिकॉर्ड निकाह रजिस्टर में दर्ज था।
हाईकोर्ट का फैसला पलटा
कलकत्ता हाईकोर्ट ने काजी और महिला के पिता के बयानों में अंतर का हवाला देते हुए महिला का दावा खारिज कर दिया था। हाईकोर्ट ने माना था कि दहेज और गहनों का दावा प्रमाणित नहीं है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि दहेज और तोहफे महिला की व्यक्तिगत संपत्ति हैं, और इनके स्वामित्व पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए। अदालत ने कहा कि कानून की व्याख्या करते समय महिलाओं की गरिमा, समानता और संवैधानिक अधिकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
पति को 7 लाख और 30 ग्राम सोने का मूल्य जमा करने का निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने रौशनारा के पति को आदेश दिया कि वे सात लाख रुपये और तीस ग्राम सोने का वर्तमान मूल्य सीधे महिला के बैंक खाते में जमा करें। अदालत ने यह भी कहा कि यदि पति आदेश का पालन नहीं करता है, तो उस पर नौ प्रतिशत वार्षिक ब्याज लागू किया जाएगा। साथ ही पति को आदेश पालन का हलफनामा भी दाखिल करना होगा।
सोशल जस्टिस आधारित व्याख्या की जरूरत
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि भारत का संविधान समानता और गरिमा को सर्वोच्च मानता है। इसलिए 1986 के मुस्लिम महिला अधिकार कानून को भी इन्हीं संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप पढ़ा जाना चाहिए।
अदालत ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं की वित्तीय सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करना राज्य और न्यायपालिका दोनों की जिम्मेदारी है। इसलिए इस कानून की सोच को “सोशल जस्टिस”, “बराबरी” और “महिला गरिमा” जैसे सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।


