मनीषा शर्मा, अजमेर। देशभर में लागू हुए वक्फ संशोधन कानून को लेकर मुस्लिम समाज में मतभेद गहराता जा रहा है। अजमेर दरगाह, जो कि सूफी परंपरा और गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक मानी जाती है, अब वक्फ कानून को लेकर दो हिस्सों में बंट गई है। दरगाह दीवान के बेटे नसरुद्दीन चिश्ती ने इस कानून का समर्थन करते हुए इसे भ्रष्टाचार मुक्त पहल बताया है, जबकि खादिम संस्था अंजुमन सैयद जादगान ने इसे मुस्लिम विरोधी बताते हुए जमकर विरोध किया है।
नसरुद्दीन चिश्ती ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आज की तारीख में वक्फ संपत्ति पर लैंड माफिया का कब्जा है और प्रभावशाली लोगों ने कौड़ियों के भाव पर इसे किराए पर ले रखा है। ऐसे में यह कानून वक्फ संपत्तियों की पवित्रता और न्यायपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करेगा। उन्होंने मुस्लिम समाज से अपील करते हुए कहा कि इस कानून से घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका उद्देश्य संपत्तियों की सुरक्षा और पारदर्शिता है, न कि उन्हें जब्त करना।
दूसरी ओर, अंजुमन सैयद जादगान के सचिव सरवर चिश्ती ने वक्फ कानून को साम्प्रदायिक एजेंडा करार दिया। उन्होंने कहा कि पिछले 11 सालों से मुसलमानों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है—चाहे वो लव जिहाद हो, ट्रिपल तलाक हो या अब वक्फ कानून। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर खोजने की कोशिश कर रही है और नए कानून के समर्थक केवल ‘पे-रोल पर मौजूद मुखबिर’ हैं।
सरवर चिश्ती ने मांग की कि सुप्रीम कोर्ट को इस कानून पर तत्काल स्टे देना चाहिए, नहीं तो अदालत में लड़ाई चलती रहेगी और जमीनों पर बुलडोजर चलते रहेंगे। उन्होंने मुसलमानों से आह्वान किया कि वे संगठन, खानकाह और दरगाह स्तर पर एकजुट होकर इसका विरोध करें। साथ ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से हस्तक्षेप की मांग भी की।
यह मुद्दा तब और गहराता नजर आया जब सरवर चिश्ती ने कहा कि यह वही वक्फ है जिसे 1935 और 2002 में भी अंजुमन ने खारिज किया था। उन्होंने तीखे शब्दों में कहा—अब शेरवानी उतारकर सड़क पर आने का वक्त है।
वक्फ कानून ने मुस्लिम समाज के भीतर गहरी बहस छेड़ दी है। एक तरफ जहां इसे सुधारात्मक पहल माना जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इसे धार्मिक पहचान पर हमले के रूप में देखा जा रहा है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट इस संवेदनशील मसले पर क्या रुख अपनाते हैं।