शोभना शर्मा। बिहार की राजनीति में इन दिनों महागठबंधन के भीतर जारी तनाव को शांत करने के लिए कांग्रेस ने एक बार फिर अपने सबसे भरोसेमंद और अनुभवी नेता अशोक गहलोत को मैदान में उतारा है। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत रविवार को पटना पहुंचे, जहां उन्होंने महागठबंधन के सभी वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात की। गहलोत ने मुलाकात के बाद कहा कि “महागठबंधन पूरी तरह एकजुट है और मजबूती से चुनाव लड़ेगा।” गहलोत के बिहार पहुंचते ही राजनीतिक हलचल तेज हो गई। कुछ ही घंटों में महागठबंधन के सभी दलों ने एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कर एकता का संदेश दिया। यह कदम कांग्रेस की रणनीतिक जीत माना जा रहा है, जिसमें गहलोत की निर्णायक भूमिका रही।
कांग्रेस के संकटमोचक गहलोत
अशोक गहलोत का नाम कांग्रेस में उस नेता के रूप में लिया जाता है जो राजनीतिक संकट की हर स्थिति में शांत दिमाग से समाधान निकालने में माहिर हैं। 2017 में जब अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के दौरान गुजरात में क्रॉस वोटिंग का संकट खड़ा हुआ था, तब गहलोत ने देर रात सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला कर कांग्रेस की हार को जीत में बदल दिया था।इसके बाद 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के प्रचार अभियान में “सॉफ्ट हिंदुत्व” का तत्व जोड़ा। यह रणनीति उस समय पार्टी के लिए चर्चा का विषय बनी। गहलोत ने सार्वजनिक रूप से कहा था—“हम हिंदू नहीं हैं क्या? क्या सिर्फ वे ही हिंदू हैं?” यह बयान कांग्रेस की वैचारिक संतुलन नीति को मजबूत करने वाला माना गया।
हरियाणा और महाराष्ट्र में भी गहलोत पर भरोसा
अशोक गहलोत की संगठनात्मक और राजनीतिक समझ के कारण पार्टी ने उन्हें कई बार संकट की घड़ी में जिम्मेदारी दी है। हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में जब कुमारी शैलजा और भूपेंद्र हुड्डा के बीच मतभेद गहराए, तब गहलोत को चुनाव पर्यवेक्षक बनाकर भेजा गया। उन्होंने दोनों गुटों में सामंजस्य बिठाने में अहम भूमिका निभाई।
महाराष्ट्र में भी जब कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में सीटों के बंटवारे पर तनाव बढ़ा, तब गहलोत और सचिन पायलट दोनों को पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था।
सादगी में छिपा रणनीतिक दिमाग
अशोक गहलोत का सादा व्यक्तित्व और मृदुभाषी स्वभाव उनकी सबसे बड़ी ताकत है। वे कभी ऊंचे स्वर में नहीं बोलते, लेकिन राजनीतिक समीकरणों को साधने में माहिर हैं। यही वजह है कि कांग्रेस ने बिहार जैसे जटिल राजनीतिक परिदृश्य में महागठबंधन की गांठें सुलझाने की जिम्मेदारी उन्हीं को सौंपी। गहलोत की छवि एक ऐसे नेता की रही है जो विरोधियों से भी संवाद बनाए रखते हैं। उनके लालू यादव और अन्य वरिष्ठ नेताओं से वर्षों पुराने संबंध हैं, जो बिहार में महागठबंधन की एकजुटता के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं।
राजस्थान में भी गहलोत ने कई बार पलटी बाजी
राजस्थान की राजनीति में गहलोत बार-बार अपने विरोधियों पर भारी पड़े हैं। जब-जब उनके नेतृत्व को चुनौती मिली, उन्होंने अपनी रणनीति और संगठनात्मक पकड़ से बाज़ी पलट दी।‘भंवरी देवी केस’ के दौरान जब जाट समाज के नेता महिपाल मदेरणा को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग उठी थी, तब गहलोत ने इस केस की जांच सीबीआई को सौंप दी, जिससे मदेरणा का राजनीतिक करियर समाप्त हो गया। यह फैसला गहलोत के निर्णायक और निर्भीक नेतृत्व की मिसाल बना।
सचिन पायलट के साथ टकराव में भी दिखाया संतुलन
सचिन पायलट और गहलोत के बीच का टकराव कांग्रेस के भीतर लंबे समय से चर्चा में रहा है। 2020 में जब पायलट खेमे ने बगावत की, तब गहलोत ने न केवल अपनी सरकार बचाई बल्कि संगठन पर भी अपनी पकड़ मजबूत की। 2022 में जब कांग्रेस हाईकमान ने नेतृत्व परिवर्तन का संकेत दिया, तो गहलोत समर्थक विधायकों ने सामूहिक इस्तीफे की धमकी दी।
यह कदम भले ही आलाकमान के लिए असहज रहा हो, लेकिन इसने गहलोत की राजनीतिक समझदारी और जनाधार दोनों को साबित किया।
बिहार में नई भूमिका और राजनीतिक संदेश
कांग्रेस ने बिहार में महागठबंधन के भीतर बढ़ते मतभेदों को देखते हुए एक अनुभवी और भरोसेमंद चेहरे की तलाश की थी। गहलोत की नियुक्ति इस बात का संकेत है कि पार्टी उन्हें अब सिर्फ राज्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के रणनीतिकार के रूप में देख रही है। वे बिहार में महागठबंधन के घटक दलों—राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी दलों—के बीच तालमेल बनाए रखने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।


