मनीषा शर्मा। राजस्थान की राजधानी जयपुर में चिकित्सा व्यवस्था एक बड़े प्रशासनिक विवाद के कारण सुर्खियों में है। सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज (SMS Medical College) और उससे जुड़े विभिन्न अस्पतालों के सभी अधीक्षकों ने एक साथ इस्तीफा भेजकर चिकित्सा शिक्षा विभाग के हालिया आदेश के खिलाफ कड़ा विरोध दर्ज कराया है। यह सामूहिक इस्तीफा उन प्रावधानों के विरोध में दिया गया है, जिनमें अधीक्षकों, नियंत्रकों और प्रिंसिपलों की निजी प्रैक्टिस करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है।
यह मामला अचानक नहीं उठा। दो दिन पहले ही राजस्थान मेडिकल कॉलेज टीचर्स एसोसिएशन (RMCTA) ने चेतावनी जारी करते हुए साफ कहा था कि यदि सरकार आदेश वापस नहीं लेती है तो सभी अधीक्षक सामूहिक रूप से इस्तीफा दे देंगे। चेतावनी के बाद विभाग की ओर से कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला और विरोध तेज हो गया। इसके बाद कांवटिया, जेके लोन, गणगौरी और एसएमएस से संबद्ध अन्य अस्पतालों के अधीक्षक अपने-अपने इस्तीफे लेकर कॉलेज प्रिंसिपल डॉ. दीपक माहेश्वरी से मिलने पहुंचे। उन्होंने प्रिंसिपल से मुलाकात के बाद स्वास्थ्य मंत्री गजेंद्र सिंह खींवसर से भी इस विषय पर चर्चा की।
निजी प्रैक्टिस पर रोक का आदेश क्यों बना विवाद का कारण
चिकित्सा शिक्षा विभाग ने 11 नवंबर को एक आदेश जारी करते हुए यह निर्देश दिया कि राज्य के किसी भी सरकारी मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल, नियंत्रक और अस्पताल अधीक्षक निजी प्रैक्टिस नहीं कर सकेंगे। आदेश स्पष्ट करता है कि इन पदों पर कार्यरत चिकित्सक अब निजी क्लीनिक में मरीज नहीं देख पाएंगे।
जैसे ही यह आदेश जारी हुआ, पूरे प्रदेश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में गंभीर असंतोष की स्थिति बन गई। डॉक्टरों का कहना है कि यह आदेश वरिष्ठ चिकित्सकों के अधिकारों का हनन है और सरकार ने इसे बिना किसी परामर्श के लागू कर दिया। अधीक्षकों के अनुसार, निजी प्रैक्टिस न केवल उनकी आर्थिक संरचना का हिस्सा है, बल्कि यह उनके क्लिनिकल अनुभव को भी बढ़ाती है, जो मरीजों के हित में होता है।
सरकार की मंशा पर उठा सवाल
RMCTA के सचिव डॉ. राजकुमार हर्षवाल ने कहा कि आदेश की मंशा स्पष्ट नहीं है और यह सीधे उपयोगी व अनुभवी चिकित्सकों के लिए बाधा पैदा करता है। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार इस आदेश के माध्यम से राज्य के बाहर के डॉक्टरों को उच्च पदों पर नियुक्त करने का मार्ग साफ कर रही है।
एसोसिएशन ने यह भी दावा किया कि वरिष्ठ प्रोफेसरों और स्थानीय शिक्षकों की वर्षों की सेवा, अनुभव और पदोन्नति के अवसरों पर इसका बुरा असर पड़ेगा। इसके अतिरिक्त, प्रिंसिपल और अधीक्षक को क्लिनिकल काम से अलग कर देना चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता में कमी ला सकता है।
एसोसिएशन के मुताबिक, क्लिनिकल भूमिकाओं से हटाए जाने से मेडिकल विद्यार्थियों को भी वास्तविक अनुभव की कमी होगी, जिससे उनकी प्रशिक्षण प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है।
विवादित आदेश के मुख्य प्रावधान
11 नवंबर को जारी किए गए आदेश में कई महत्वपूर्ण बदलाव शामिल किए गए हैं—
निजी प्रैक्टिस पर पूर्ण प्रतिबंध: प्रिंसिपल, नियंत्रक और अधीक्षक अब निजी क्लीनिक नहीं चला सकेंगे।
चयन प्रक्रिया में बदलाव: प्रिंसिपल पद पर सीधे नियुक्ति नहीं होगी। इसके लिए 3 वर्ष अधीक्षक/अतिरिक्त प्रिंसिपल का अनुभव और 2 वर्ष विभागाध्यक्ष का अनुभव अनिवार्य बनाया गया है।
उच्चस्तरीय चयन समिति: प्रिंसिपल और अधीक्षक पदों के चयन के लिए 4 सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति गठित की गई है।
क्लिनिकल कार्य को सीमित किया गया: प्रिंसिपल और अधीक्षक को अब केवल 25% क्लिनिकल कार्य की अनुमति होगी।
यूनिट हेड नहीं बन पाएंगे: इन दोनों पदों पर बैठे डॉक्टर यूनिट हेड या विभागाध्यक्ष की भूमिका नहीं निभा सकेंगे।
इन प्रावधानों ने वरिष्ठ डॉक्टरों में यह भावना पैदा की है कि उनकी प्रशासनिक और क्लिनिकल भूमिका सीमित करने की कोशिश की जा रही है।


