शोभना शर्मा। भारतीय शेयर बाजार के नियामक SEBI (सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) एक महत्वपूर्ण विनियामक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इस बार बदलाव का केंद्र है रिलेटेड पार्टी ट्रांजैक्शन (RPT) से जुड़े नियम, जिन्हें सरल और लचीला बनाने का प्रस्ताव रखा गया है। यह प्रस्ताव ऐसे समय में आया है जब कॉर्पोरेट गवर्नेंस को लेकर निवेशकों की सतर्कता लगातार बढ़ती जा रही है।
RPT क्या होता है?
रिलेटेड पार्टी ट्रांजैक्शन (RPT) वह वित्तीय या कारोबारी लेनदेन होता है, जिसमें कंपनी अपने प्रमोटर, निदेशक या उनसे जुड़ी अन्य संस्थाओं के साथ कोई सौदा करती है। इस प्रकार के सौदों में हितों का टकराव (conflict of interest) हो सकता है, इसलिए इन्हें पारदर्शी बनाए रखने के लिए SEBI ने इन पर विशेष नियम लागू कर रखे हैं।
वर्तमान नियम क्या हैं?
वर्तमान में अगर कोई RPT ₹1000 करोड़ या कंपनी के टर्नओवर का 10% (जो भी कम हो) से अधिक का होता है, तो उस सौदे को कंपनी के सार्वजनिक शेयरधारकों से मंजूरी लेनी होती है। यह नियम खासतौर से बड़े सौदों पर शेयरधारकों का नियंत्रण सुनिश्चित करता है।
SEBI का नया प्रस्ताव क्या कहता है?
SEBI द्वारा हाल ही में जारी कंसल्टेशन पेपर में इस ₹1000 करोड़ की फिक्स्ड लिमिट को हटाने का सुझाव दिया गया है। इसके स्थान पर अब प्रस्तावित है कि RPT की सीमा कंपनी के वार्षिक टर्नओवर से जोड़ी जाएगी, जिससे प्रत्येक कंपनी की सीमा उसके आकार के अनुरूप तय की जा सके।
प्रस्ताव के प्रमुख बिंदु:
₹1000 करोड़ की सीमा समाप्त: अब कोई भी फिक्स लिमिट नहीं होगी, बल्कि सौदे की सीमा कंपनी के वित्तीय आकार से जुड़ी होगी।
टर्नओवर आधारित मानदंड: कंपनियों के लिए RPT को लेकर शेयरधारकों की मंजूरी लेने की बाध्यता केवल तब होगी, जब लेन-देन तय प्रतिशत सीमा को पार करेगा।
अनुमानित प्रभाव: SEBI के आकलन के अनुसार, इस बदलाव से लगभग 60% मामलों में कंपनियों को सार्वजनिक शेयरधारकों की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
प्रभाव और चिंता:
प्रमोटर्स के लिए लाभ:
कंपनियों को अपने ही समूह की अन्य कंपनियों के साथ लेन-देन करने में कम बाधा आएगी।
इससे कारोबारी निर्णयों में गति और लचीलापन आएगा।
निवेशकों के लिए जोखिम:
छोटे और संस्थागत निवेशकों के पास अब बड़े सौदों को रोकने या सवाल उठाने का अधिकार कम हो जाएगा।
इससे कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर असर पड़ सकता है, खासकर उन कंपनियों में जहां प्रमोटर्स का वर्चस्व पहले से अधिक है।
SEBI की मंशा और पारदर्शिता का सवाल
SEBI ने यह कदम कारोबारी सुगमता (ease of doing business) और जटिल अनुपालन को घटाने के उद्देश्य से उठाया है। साथ ही, SEBI ने सभी हितधारकों से 31 अगस्त 2025 तक इस पर सुझाव मांगे हैं। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि इस बदलाव से कॉर्पोरेट गवर्नेंस में संभावित ढील आ सकती है और यह निवेशकों के हितों के खिलाफ भी साबित हो सकता है, खासकर उन मामलों में जहां कंपनियां पारदर्शिता नहीं बरततीं।


