298 साल पुरानी गुलाबी नगरी जयपुर आज अपनी विशेष बसावट, अद्वितीय बाजार व्यवस्था, स्थापत्य कला और ऐतिहासिक महत्व के कारण विश्वभर में प्रसिद्ध है। इसकी हर सड़क, हर चौक और हर बाजार में महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय की दूरदृष्टि और वैश्विक सोच स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत बताते हैं कि जयपुर की बसावट केवल कारीगरी या स्थापत्य कला की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि एक सुविचारित आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक योजना थी, जिसने इस शहर को भारत के सबसे व्यवस्थित व्यापारिक केंद्रों में शामिल कर दिया।
एक किस्से ने बदल दी जयपुर के बाजारों की दिशा
जयपुर शहर की बसावट के शुरुआती दिनों में एक रोचक घटना ने महाराजा सवाई जय सिंह को बाजार व्यवस्था बदलने के लिए प्रेरित किया। शेखावत द्वारा वर्णित एक प्रसंग के अनुसार, जब महाराजा अपने सैनिक दल के साथ रामगंज क्षेत्र से गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि एक ओर ऊंट की खाल में रखा तेल बेचा जा रहा है और ठीक बगल में एक सेठ मिट्टी की हांडी में देसी घी बेच रहा है। आसपास ही सेठ, हलवाई और जौहरी भी अपनी दुकानों पर बैठे थे। व्यापार की यह अव्यवस्थित और मिश्रित स्थिति देखकर महाराजा ने तत्काल निर्णय लिया कि शहर को व्यवस्थित व्यापार आधारित बाजारों में बांटा जाए। इसी सोच ने जयपुर को एक अनोखी बाजार प्रणाली वाला शहर बना दिया।
चीन के प्राचीन शहर से मिली प्रेरणा
इतिहासकार बताते हैं कि जयपुर की योजना केवल स्थानीय अनुभव पर आधारित नहीं थी। महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने विभिन्न देशों की यात्राएं कीं और वहां की शहरी संरचनाओं का गहन अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होंने चीन के प्राचीन चांघांग (वर्तमान शीआन) शहर का नक्शा मंगवाया। उस नक्शे में दर्शाई गई नगर बसावट ने जयपुर के निर्माण की दिशा ही बदल दी।
यही नहीं, जय सिंह ने विदेशी विद्वानों से भी सलाह ली। यूरोपियन पादरी डी. सिल्वा के सुझाव उन्हें इतने पसंद आए कि उन्होंने उन्हें सामंत की उपाधि देकर नींदड़ की जागीर प्रदान कर दी। आज भी उनके वंशज जयपुर के सुभाष चौक में निवास करते हैं, जो इस ऐतिहासिक संबंध की साक्षी है।
162 दुकानों से शुरू हुआ बाजार तंत्र
जयपुर की बसावट में महाराजा का सबसे महत्वपूर्ण कदम था—देशभर से कुशल कारीगरों, कलाकारों और व्यापारियों को शहर में बसाना। उनके हुनर और व्यापार की श्रेणी के अनुसार उन्हें अलग-अलग मार्ग तथा बाजार दिए गए। शुरुआत में 162 दुकानों का बड़ा व्यापारिक केंद्र बनाया गया, जिसने जयपुर की बाजार व्यवस्था को स्वरूप दिया।
काबुल और कंधार से आए सिख जड़िया परिवारों के कारण ‘जड़ियों का रास्ता’ अस्तित्व में आया, जो सराफा व्यापार का बड़ा केंद्र बना। जयपुर का प्रत्येक बाजार किसी न किसी कला, व्यापार और संस्कृति की पहचान बन गया।
पुरानी कहावतें भी बताती हैं बाजारों की विविधता
ढूंढाड़ क्षेत्र की कई पुरानी कहावतें जयपुर के व्यापारिक चरित्र को दर्शाती हैं। जैसे—
“जैपर में छे तरह-तरह का बाजार, परतानियां का रस्ता में छे भांत-भांत का अचार।”
हनुमान के रास्ते के लिए कहा जाता था—
“हनुमान का रास्ता और पूड़ी से, हलवा सस्ता।”
यह क्षेत्र बड़े भोज और आयोजनों के लिए प्रसिद्ध था, जहां के हलवाइयों की पकवान कला पूरे प्रदेश में जानी जाती थी।
जयपुर में जन्मा चौघनी का लड्डू
भारतीय मिठाइयों में जयपुर की पहचान ‘चौघनी के लड्डू’ से भी है। मोटी बूंदी, चार गुना शक्कर और घी से बने ये लड्डू पहली बार जय सिंह के शासनकाल में तैयार किए गए। दाना मेथी, गोल कचौरी, मिश्री मावा, फीणी, घेवर जैसे व्यंजन भी इसी काल में लोकप्रिय हुए और लोग मीलों पैदल चलकर इन्हें खरीदने आते थे।
कटला: जयपुर का पहला व्यापारिक कॉम्पलेक्स
इतिहासकार शेखावत बताते हैं कि जयपुर के बाजारों की सुरक्षा मीणा चौकीदारों के हवाले थी, जिनकी व्यवस्था बेहद सुदृढ़ थी। सर्राफा व्यापारी अपने जेवरात बंद बक्सों में सड़क किनारे रखकर घर चले जाते थे। इसी दौर में बड़ी चौपड़ पर ‘कटला’ का निर्माण हुआ, जो आज के कॉम्पलेक्स का प्रारंभिक रूप था। इसे पुरोहित जी की देखरेख में शर्तानुसार भूमि दान देकर विकसित किया गया।
जयपुर—एक सुविचारित सपनों का शहर
इतिहासकार शेखावत के अनुसार, जयपुर केवल ईंट-पत्थर का शहर नहीं, बल्कि दूरदर्शिता, व्यापारिक सोच और सपनों का प्रतिरूप है। 298 वर्षों का यह सफर दर्शाता है कि कैसे महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय की वैश्विक दृष्टि और कारीगरों के सम्मान ने जयपुर को दुनिया के सबसे अनूठे शहरों में शामिल किया।


