शोभना शर्मा। जैसलमेर जिले के मेघा गांव में हाल ही में एक ऐसी खोज हुई है जिसने वैज्ञानिक जगत को रोमांचित कर दिया है। यहां मिले जीवाश्म को प्रारंभ में डायनासोर का माना गया था, लेकिन विस्तृत जांच के बाद वैज्ञानिकों ने इसे फाइटोसॉर (Phytosaur) का जीवाश्म घोषित किया। यह खोज इसलिए विशेष है क्योंकि भारत में पहली बार किसी फाइटोसॉर का इतना संरक्षित और स्पष्ट जीवाश्म मिला है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि करोड़ों वर्ष पहले थार मरुस्थल का यह इलाका जलीय जीवन से परिपूर्ण रहा होगा।
जीवाश्म अंडे के साथ मिला
मिले हुए जीवाश्म की लंबाई लगभग डेढ़ से दो मीटर है। यह जीवाश्म एक अंडे के साथ पाया गया है, जिससे वैज्ञानिकों को अनुमान है कि यह अंडा भी संभवतः उसी सरीसृप का रहा होगा। मौके पर पहुंचे वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे फाइटोसॉर अपने अंडे को बगल में दबाकर बैठा हुआ था। इस खोज ने इसे और भी दुर्लभ और महत्वपूर्ण बना दिया है।
जैसलमेर बना देश का सबसे बड़ा जीवाश्म स्थल
भू-वैज्ञानिक डॉ. नारायण दास इनाखिया ने बताया कि इस खोज के बाद जैसलमेर देश के सबसे बड़े और व्यापक जीवाश्म स्थलों में शामिल हो गया है। करीब 180 मिलियन वर्ष पहले यह क्षेत्र जुरासिक युग का हिस्सा था, जब डायनासोर सहित कई प्राचीन जीव यहां रहते थे।
जैसलमेर का पश्चिमी इलाका, जिसे ‘लाठी फॉर्मेशन’ कहा जाता है, लगभग 100 किलोमीटर लंबा और 40 किलोमीटर चौड़ा है। यहां की चट्टानें मीठे पानी, समुद्री जीवन और जलीय वातावरण के प्रमाण देती हैं। यही वजह है कि यहां फाइटोसॉर जैसे जीव के अवशेष मिलना वैज्ञानिक दृष्टि से पूरी तरह संगत है। उस समय यहां एक ओर नदी और दूसरी ओर समुद्र रहा होगा, जिससे यह क्षेत्र समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र का केंद्र बना।
जैसलमेर में पूर्व की महत्वपूर्ण खोजें
जैसलमेर अतीत से ही जीवाश्मों के लिए चर्चित रहा है।
थियाट गांव में हड्डियों के जीवाश्म मिले थे।
डायनासोर के पैरों के निशान (फुटप्रिंट) यहां पाए गए।
2023 में डायनासोर का अंडा अच्छी स्थिति में खोजा गया।
अब मेघा गांव में फाइटोसॉर का जीवाश्म मिलना इस कड़ी की पांचवीं बड़ी खोज है।
इन खोजों की वजह से जैसलमेर को सही मायनों में “भारत का जुरासिक पार्क” कहा जा सकता है।
जियो-टूरिज्म की संभावनाएं
डॉ. इनाखिया ने कहा कि जैसलमेर में जियो-टूरिज़्म की अपार संभावनाएं हैं। यहां न केवल डायनासोर और फाइटोसॉर जैसे जीवाश्म मिलते हैं, बल्कि जड़ (रूट) जीवाश्म और समुद्री जीवों के भी अवशेष मौजूद हैं। इन सबको संरक्षित कर वैज्ञानिक अध्ययन और पर्यटन दोनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा तानोट क्षेत्र में पाई जाने वाली भूमिगत सरस्वती नदी की धाराएं भी भूगर्भीय दृष्टि से अत्यंत रोचक हैं। ये 5 से 6 हजार साल पुरानी वेदकालीन धारा हैं, जबकि जैसलमेर के जीवाश्म 180 मिलियन वर्ष पुराने हैं। दोनों को मिलाकर यह इलाका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से असाधारण बन जाता है।
पुराने तालाब की सफाई में मिली खोज
दिलचस्प बात यह है कि यह जीवाश्म मेघा गांव के प्राचीन तालाब की सफाई के दौरान मिला। जब स्थानीय लोग सफाई कर रहे थे, तभी उन्हें यह अवशेष मिला। उन्होंने इसकी तस्वीरें खींचकर जिला प्रशासन और पुरातत्व विभाग को सूचना दी। इसके बाद भूवैज्ञानिकों की टीम डॉ. नारायण दास इनाखिया के नेतृत्व में मौके पर पहुंची। बाद में जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पृथ्वी विज्ञान विभाग के डीन और वरिष्ठ जीवाश्म वैज्ञानिक प्रो. वी. एस. परिहार ने इस जीवाश्म का निरीक्षण कर पुष्टि की कि यह फाइटोसॉर का जीवाश्म है।
फाइटोसॉर: मगरमच्छ जैसा प्राचीन जीव
फाइटोसॉर एक ऐसा प्राचीन सरीसृप था जो दिखने में मगरमच्छ जैसा लगता था। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह जीवाश्म लगभग 200 मिलियन वर्ष पुराना है। यह मध्यम आकार का फाइटोसॉर था जो नदियों के किनारे रहता था और मछलियों को खाकर जीवित रहता था।
फाइटोसॉर की उम्र लगभग 229 मिलियन वर्ष पुरानी भी हो सकती है और यह प्रारंभिक जुरासिक काल से संबंधित है। इसका शरीर लम्बा, जबड़े मगरमच्छ जैसे और दांत तेज होते थे, जिससे यह जलीय जीवन के लिए अनुकूल था।
वैज्ञानिक महत्व
मेघा गांव में मिला यह जीवाश्म दुर्लभ है और भारत में अब तक का सबसे संरक्षित फाइटोसॉर जीवाश्म माना जा रहा है। इससे यह भी पता चलता है कि थार मरुस्थल का यह इलाका कभी हरा-भरा और जलस्रोतों से भरपूर था। यह खोज भारत के पेलियोन्टोलॉजी (जीवाश्म विज्ञान) इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ती है।


